तहकीकात
न्यूज @ वेब डेस्क . बैकुन्ठपुर
कौन गांव के करम डाल, कहां कर नगरिया गीत बजते ही प्रकृति से सौहार्द का नजारा व झूमते गाते हमारे आदिवासी भाई बहिनो का नृत्य बरबस ही सामने नजर आने लगता है। करम पेड का आदिवासी अंचल में जितना महत्व है उतना ही इसका वैज्ञानिक और आर्युवेदिक महत्व भी है। प्रकृति से प्रेम का रिश्ते का पर्व करमा कोविड नियमों का पालन करते हुए इस वर्ष भी धूमधाम से मनाया जा रहा है। कोरोना काल में आर्युवेद के बढते प्रभाव ने हमें प्रकृति के महत्व से रूबरू कराया है करम के पेड का वानस्पतिक नाम हल्डिनिया कॉर्डिफोलिया है। इसकी लकड़ी का रंग हल्दी के जैसे पीला होता है,इसलिए इसे हल्दू भी कहते हैं।
आदिवासियों को प्रकृति पूजक माना जाता है. ऐसे में करम पर्व में एक बहन की ओर से तीन करम डाल को अखड़ा में गाड़ने की प्रथा है. जबकि यह तीन डाल प्रकृति प्रेम को चित्रित करती हैै,जो पर्यावरण संरक्षण का अनुपम उदाहरण है। एक बहन, तीन डाल देवता के नाम पर, गांव के नाम पर और परिवार के नाम पर गाड़ती है. इससे पर्यावरण संरक्षण की ओर से एक कदम बढ़ाया जा सकता है।
आर्युवेद चिकित्सा अधिकारी डां जे.एन. मिश्र ने बताया पारंपरिक उपचार के रूप में खांसी, पीलिया, पेट में दर्द और पेट में सूजन में आदिवासी अंचलो में करम का प्रयोग स्थानीय लोग करते है। करम वृक्ष का काढ़ा बनाकर सेवन करने से मधुमेह में लाभ होता है हरिद्रु फल में गिलोय तथा तुलसी मिलाकर काढ़ा बनाकर सेवन करने से ज्वर का शमन होता है। उन्होने बताया इसका उपयोग त्वचा रोग, घाव, उल्टी, आंतों के कीड़े, अपच और जिगर के रोगों के उपचार के लिए किया जाता है।
करमा पर्व और विज्ञान का संबंध
करम पर्व केवल भाई-बहन के एकजुटता का संदेश नहीं देता वरन इस पर्व का वैज्ञानिक पक्ष भी है। बरसात के मौसम के बाद का समय रबी और दलहन की खेती का होता है इसमें किसान का पूरा परिवार उसकी तैयारी में जुटा होता है.जावा बुनाई से बीजों की जांच होती है ,पर्व के सात दिन पहले किसान पिछले साल के रखे हुए बीज की जांच करते हैं.ऐसे में किसान करम पर्व और फसल की बोआई से पहले पिछले साल रखे गये बीजों की जांच करते हैं। अंकुरण विधि प्रक्रिया सात दिन तक चलती है सात दिन के दौरान अगर बीज से फसल निकल आये, तो इसका मतलब है कि बीज सही सलामत है और उसे फसल के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
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